पांच लाख टन गेंहू के आयात पर सवाल

नई दिल्ली  : बेमौसम बरसात से जब फसल खराब हुई तो खरीद के लिए गुणवत्ता मानकों में ढील दे कर सरकार ने गेहूं किसानों को राहत दी। स्थिति यह बनी कि सरकारी एजेंसियों के पास पिछले साल के मुकाबले भंडारण अधिक हो गया। कमजोर गुणवत्ता वाले इस गेहूं का समय रहते उपयोग नहीं हुआ तो यह मानव उपभोग के लायक नहीं रहेगा। ऐसे में आटा मिलों के गेहूं का आयात करना कितना उचित है? सस्ते और कुछ बेहतर गेहूं के आयात को रोकने के लिए 10 फीसदी शुल्क लगाना क्या सही कदम है? WHEAT GRAINS_2--621x414
अब तक पांच लाख टन गेहूं आयात हो चुका है। वहीं ऐसा माना जा रहा है कि लगभग बीस लाख टन गेहूं का आयात इस वर्ष और किया जाएगा। बड़े आयात का कारण यह बताया जा रहा है कि ज्यादा प्रोटीन वाले गेहूं की पैदावार पर इस साल बड़ा असर पड़ा है। दूसरी ओर सरकार गेहूं पर दस फीसदी आयात शुल्क लगाने का फैसला ले चुकी है। प्रश्न यह है कि सिर्फ दस प्रतिशत ही क्यों, जब हमारे पास सौ प्रतिशत शुल्क लगाने की छूट है तो कम से कम 50 प्रतिशत आयात शुल्क तो किया ही जा सकता है। ऐसे में मिलें बाहर से गेहूं नहीं मंगवाएगी और देश में गेहूं सड़ेगा भी नहीं।
यह सही है कि मौसम के प्रतिकूल हालात के चलते 2015 में गेहूं की पैदावार पिछले वर्षों की तुलना में कम हुई है। गौरतलब है कि पिछले लगभग पांच वर्षों से गेहूं की बंपर फसल के चलते देश में 2010 के बाद से अभी तक गेहूं की कमी से तो नहीं जूझना पड़ा ही बल्कि भारतीय खाद्य निगम के गेहूं की भंडार भी लबालब रहे हैं। देश में न्यूनतम भंडार की आवश्यकता 50 लाख टन की है। इस वर्ष की खरीद से पहले भारतीय खाद्य निगम के पास 165 लाख टन गेहूं का स्टाक था।
देश में पिछले साल 960 लाख टन गेहूं की पैदावार के बदले इस साल 909 लाख टन गेहूं की पैदावार होने की संभावना है यानी पिछले साल से मात्रा पांच प्रतिशत कम। माना जाता है कि देश में गेहूं की मांग लगभग 720 लाख टन वार्षिक की ही है इसलिए देश में गेहूं की पैदावार मांग से भी कहीं ज्यादा है। फिर भी दुनिया में गेहूं के कम भाव के चलते, गेहूं का बड़ी तादाद में आयात शुरू हो गया है।
गेहूं के बड़े आयात के पीछे यह कारण बताया जा रहा है कि ज्यादा प्रोटीन वाले गेहूं की पैदावार पर इस साल बड़ा असर पड़ा है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि मध्य भारत में ज्यादा प्रोटीन वाला अच्छी किस्म का गेहूं पैदा होता है। आटा कंपनियां कम कीमत वाले कुछ हल्के स्तर के गेहूं के साथ अच्छे स्तर के गेहूं को मिला कर आटा तैयार करती है और इसके साथ ही कुछ सह उत्पाद भी तैयार किए जाते हैं जो बेकरी उत्पादों में ज्यादा इस्तेमाल होते हैं।
दक्षिण भारत मंे भले ही गेहूं की पैदावार नहीं होती हो लेकिन आटा मिलों की संख्या सर्वाधिक है। इन मिलों को विदेश से भी गेहूं मंगवाना सस्ता पड़ता है। ये मिलें इसके लिए हमेशा तैयार रहती हैं। ऐसे में ये मिलें देश में भारी वर्षा के कारण गेहूं का खराब होना बता कर इसका आयात करने में लगी हैं। ऐसा नहीं है कि देश में गेहूं के भंडार खाली होने के कगार पर हैं। देश में इतना बड़ा भंडार हो और हम यह भी जानते हैं कि जितना हम आयात करेंगे उतना ही देश में गेहूं सड़ेगा, यह कहां तक सही है? गेहूं को सड़ने से बचाने का सर्वोत्तम उपाय इसका उपयोग करना ही है न कि आयात करना।
दरअसल हमारे देश में गेहूं आयात निर्यात के नियम सही नहीं हैं। हमें इन पर एक बार फिर गौर करने की जरूरत है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के तहत हम गेहूं पर 100 प्रतिशत आयात शुल्क लगा सकते हैं लेकिन हमने इसे काफी समय से शून्य के स्तर पर ही रखा हुआ है। हमारी नीतियां केवल कुछ उद्यमों को फायदा पहुंचाने वाली रही है। इन नीतियों के चलते डब्ल्यूटीओ का कहना है कि आयात शुल्क यदि भारत में लंबे समय से शून्य के स्तर पर है, तो इस आयात शुल्क को लगाने की अधिकतम सीमा को 100 प्रतिशत से घटा कर शून्य ही कर देना चाहिए।
विषय मात्रा गेहूं के आयात करने या नहीं करने का नहीं है क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में उतार-चढ़ाव के चलते दुनियां में आयात निर्यात होता ही रहता है। लेकिन भारत के संदर्भ में हमें यह समझना होगा कि इस साल बेमौसम बरसात और ओलावृष्टि के कारण देश में किसानों से गेहूं की खरीद करते हुए गुणवत्ता के मानकों को कम किया गया ताकि किसानों के हितों की सुरक्षा की जा सके।
आटा मिलों का कहना है कि देश में पैदावार गेहूं की गुणवत्ता खराब है लेकिन ऐसा नहीं है। गुणवत्ता इतनी खराब नहीं है जितनी बताई जा रही है। सिर्फ रंग का फर्क है। गेहूं में जो हल्का कालापन आया है, उसकी वजह उस पर पानी गिरना है। यदि आप इसे साफ गेहूं की बड़ी मात्रा में मिला कर उपयोग करेंगे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह सिर्फ रंग का फर्क है, गुणवत्ता का नहीं। पहले भी ऐसा गेहूं इस्तेमाल होता आया है। पहले भी ये मिलें देश से ही गेहूं लिया करती थीं तो अब क्या हो गया है?
एक समस्या यह भी बनी हुई है कि जहां गेहूं की पैदावार होती है, वहां मिलें नहीं हैं और जहां पैदावार नहीं होती, वहीं सर्वाधिक मिले हैं। हम जानते हैं कि देश में सर्वाधिक गेहूं की पैदावार वाला राज्य पंजाब है पर विडंबना यह बनी हुई है कि पंजाब को अपनी जरूरत के लिए अन्य राज्यों से आटा खरीदना पड़ता है। यहां से गेहूं पहले कर्नाटक या तमिलनाडु की मिलों में जाता है और वहां से आटा वापस पंजाब में आता है।
यह कहानी सिर्फ पंजाब की नहीं है अपितु सभी उन प्रदेशों की कहानी है जहां गेहूं की अच्छी पैदावार होती है। ऐसे में मिल वाले राज्यों में गेहूं पहुंचते पहुंचते महंगा हो जाता है और वहां से वापस आटा खरीदने वाले राज्यों में इसकी कीमत बढ़ जाती है। सरकार को करना यह चाहिए कि मिलें वहां लगाने को प्रोत्साहन दें जहां गेहूं की पर्याप्त पैदावार होती है। यह सब नीति के तहत होना चाहिए।

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