चन्दनगर एक छोटा सा राज्य था। उदयभानु उस समय वहां के राजा थे। राजा बड़ा दयालु और दानवीर था। उसके राज्य के बाहर जंगल और उद्यानों में अनेक पशु-पक्षी निर्भय होकर स्वतन्त्र रूप से घूमते थे क्योंकि वहां के नागरिक उनका शिकार नहीं करते थे। इसलिये; आसपास के राज्यों में भी पक्षी वहां आकर जंगल में मंगल करने लगे।
दूसरे राज्य का एक परिवार जो पक्षियों को पकड़ कर बेचने का व्यवसाय करता था, वहां आकर बस गया। वह रोज जंगल से सुन्दर-सुन्दर रंग बिरंगे पक्षी पकड़ कर पिंजरे में भर कर नगर में लाता और नगरवासियों को बेचने लगा। अकेला परिवार था, खूब आमदनी होने लगी।
दयालु और दानवीर राजा को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने आदेश दिया कि जितने भी पक्षी पकड़ने वाले हैं, बन्दी पक्षियों को लेकर दरबार में आयें और उनका उचित मूल्य लेकर उन्हें राजा के सामने ही आजाद कर दिया करें।
राजा के इस निर्णय की नगर की चर्चा हुई। फिर क्या था, लोग पक्षियों को पकड़ने के काम में जुट गये। रोज हजारों पिंजरे खाली होने लगे और साथ ही राजकोष से धन भी निकलने लगा। ज्यों-ज्यों राजा की कीर्ति बढ़ती गई त्यों-त्यों पक्षियों के पकड़े जाने और छोड़े जाने की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ती चली गई।
एक दिन राजा के यहां एक मुनि मनीषी पहुंचे। उन्होंने पक्षियों के पकड़े जाने और राजकोष से धन प्राप्त करके इन्हें छोड़ जाने वाले व्यापार का दृश्य देखा तो वे बड़े दुखी हुए। उन्हें राजा की इस अज्ञानता पर बड़ा क्षोभ हुआ।
पक्षी मुक्ति समारोह समाप्त होने के पश्चात् मुनि ने राजा को समझाया; कहा-राजन्! आपकी यश कामना इन पक्षियों को बड़ी महंगी पड़ रही है। लालच के कारण नगर में असंख्य बहेलिये पैदा हो गये हैं जिनकी वजह से पक्षी पकड़े जाने के कुचक्र में अनगिनत पक्षियों को अकारण पीड़ा पहंुचाई जा रही है, कुछ के प्राण जा रहे हैं। आपका यह कार्य दयालुता का नहीं है। दयालुता तो इसमें है कि आप कठोर आदेश करें कि भविष्य में कोई भी पक्षियों को पकड़ कर बन्दी नहीं बनाएगा।
राजा को अपनी भूल का एहसास हुआ और उसने दयालुता का प्रदर्शन छोड़कर महात्मा के परामर्श के अनुसार वही नीति अपनाई जिसमें वस्तुतः दया और धर्म का पालन होता है। उसके बाद नगर में पक्षियों को बन्दी बनाने का कार्य बन्द हो गया। बहेलिये अन्य काम करने लगे। पक्षी फिर से वन में स्वतंत्र होकर प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे।