सच्चे सुरमा

एक महापराक्रमी राजा था और उसका बुद्धिमान मंत्री भी था। दिन भर के अनेकों राजकार्यों के फलस्वरूप राजा बड़ी ही चिंता करता था और यदा-कदा पड़ौसी देशों से युद्ध भी होता था। परन्तु राजा महापराक्रमी होने पर भी विश्राम का क्षण नहीं देख पाता। परन्तु सदा अपने मंत्री को ज्यादा गमगीन की बजाय गम्भीर व शांत पाता। एक समय राजा ने कहा कि मंत्रीवर आप हर मोड़ पर मेरे सलाहकार हो परन्तु यह बताओ आप हर समय शांतचित्त कैसे रहते हो? मैं तो सदा ही गमगीन रहता हूँ।
राजन में सदा अपने इष्टदेव संत-सदगुरू का ध्यान व पावन उपदेश हृदय में धारण करता हूं और हर कार्य में उन्हीं की मौज समझता हूं। सारा दिन आपके साथ रह कर,युद्ध के दौरान सफर में हर पल में उन्ही की मौज का दखल समझता हूं। इष्टदेव स्वयं परमेश्वर रूप हैं। इसी विश्वास क्रम पर ही मैं सदा शान्त रहता हंू। राजा अपने घोड़े से तुरंत कूदकर मंत्री की छाती से लिपट गया और लिपटते ही अनायास ही उसने अलौकिक शांति का अनुभव किया उसने मंत्री से सनम्र आग्रह किया कि मुझे भी उस प्रयोग का अभीष्ट ज्ञान दिलाओ, मंत्री पारमार्थिक विचारों का था तुरंत सफर करके आश्रम पर पहुँच गए।
कुटिया के पास पहुंचते ही, देखकर गुरूदेव ने मधुर व उपदेश पूर्ण दृष्टिकोण से कहा राजा श्रद्वावन्त हुआ। महापुरुषों के वचनांे के प्रभाव से उसे ज्ञान प्राप्त हुआ और यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर राजपाट में आनंद अनुभव करने लगा। उसने कहा वास्तव में सत्य ही है। वास्तव में सतगुरु ही सच्चे सूरमा हैं जो कि जीवन क्रम में संग्राम में भी विश्राम पूर्ण होते हैं। एवं सतत् यही शिक्षा व ज्ञान सकल संसार के प्राणियों के लिए प्रदान करते हैं।

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