सिखों के पहले श्री गुरु नानक देव जी का प्रकाश उत्सव (जन्मदिन) कार्तिक पूर्णिमा को मनाया जाता है। अंधविश्वास और आडंबरों के कट्टर विरोधी गुरु नानक जी पंजाब के तलवंडी नामक स्थान पर एक किसान के घर जन्मे थे। उनके मस्तक पर शुरू से ही तेज आभा थी। तलवंडी जो कि पाकिस्तान के लाहौर से 30 मील पश्चिम में स्थित है, गुरु नानक का नाम साथ जुड़ने के बाद आगे चलकर ननकाना कहलाया। श्री गुरु नानक देव जी के प्रकाश उत्सव पर प्रति वर्ष भारत से सिख श्रद्धालुओं का जत्था ननकाना साहिब जाकर वहां अरदास करता है।
श्री गुरु नानक देव जी बचपन से ही गंभीर प्रवृत्ति के थे। बाल्यकाल में जब उनके अन्य साथी खेल कूद में व्यस्त होते थे तो वह अपने नेत्रा बंद कर चिंतन मनन में खो जाते थे। यह देख उनके पिता कालू एवं माता तृप्ता चिंतित रहते थे। उनके पिता ने पंडित हरदयाल के पास उन्हें शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा लेकिन पंडितजी बालक नानक के प्रश्नों पर निरुत्तर हो जाते थे और उनके ज्ञान को देखकर समझ गए कि नानक को स्वयं ईश्वर ने पढ़ाकर संसार में भेजा है। नानक को मौलवी कुतुबुद्दीन के पास पढ़ने के लिए भेजा गया लेकिन वह भी नानक के प्रश्नों से निरुत्तर हो गए। नानक जी ने घर बार छोड़ दिया और दूर दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की श्निर्गुण उपासनाश् का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख संप्रदाय के आदिगुरु हुए।
श्री गुरु नानक देव जी का विवाह सन 1485 में बटाला निवासी कन्या सुलक्खनी से हुआ। उनके दो पुत्रा श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द थे। गुरु नानक के पिता ने उन्हें कृषि, व्यापार आदि में लगाना चाहा किन्तु यह सारे प्रयास नाकाम साबित हुए। उनके पिता ने उन्हें घोड़ों का व्यापार करने के लिए जो राशि दी, गुरु जी ने उसे साधु सेवा में लगा दिया। कुछ समय बाद गुरु जी अपने बहनोई के पास सुल्तानपुर चले गये। वहां वे सुल्तानपुर के गवर्नर दौलत खां के यहां मादी रख लिये गये। नानक जी अपना काम पूरी ईमानदारी के साथ करते थे और जो भी आय होती थी उसका ज्यादातर हिस्सा साधुओं और गरीबों को दे देते थे।
सिख ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि श्री गुरु नानक देव जी नित्य बेई नदी में स्नान करने जाया करते थे। एक दिन वे स्नान करने के पश्चात वन में अन्तर्ध्यान हो गये। उस समय उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। परमात्मा ने उन्हें अमृत पिलाया और कहा- मैं सदैव तुम्हारे साथ हूं, जो तुम्हारे सम्पर्क में आयेंगे वे भी आनन्दित होंगे। जाओ दान दो, उपासना करो, स्वयं नाम लो और दूसरों से भी नाम स्मरण कराओ। इस घटना के पश्चात वे अपने परिवार का भार अपने श्वसुर को सौंपकर विचरण करने निकल पड़े और धर्म का प्रचार करने लगे। उन्हें देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही विदेशों की भी यात्रााएं कीं और जन सेवा का उपदेश दिया। बाद में वे करतारपुर में बस गये और 1521 ई. से 1539 ई. तक वहीं रहे।
श्री गुरु नानक देव जी ने जात-पांत को समाप्त करने और सभी को समान दृष्टि से देखने की दिशा में कदम उठाते हुए ‘लंगर’ की प्रथा शुरू की थी। लंगर में सब छोटे-बड़े, अमीर-गरीब एक ही पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। आज भी गुरुद्वारों में उसी लंगर की व्यवस्था चल रही है, जहां हर समय हर किसी को भोजन उपलब्ध होता है। इस में सेवा और भक्ति का भाव मुख्य होता है। श्री गुरु नानक देवजी का जन्मदिन गुरु पूर्व के रूप में मनाया जाता है। तीन दिन पहले से ही प्रभात फेरियां निकाली जाती हैं। जगह-जगह भक्त लोग पानी और शरबत आदि की व्यवस्था करते हैं। गुरु नानक जी का निधन सन 1539 ई. में हुआ। इन्होंने गुरुगद्दी का भार गुरु अंगददेव (बाबा लहना) को सौंप दिया और स्वयं करतारपुर में ‘ज्योति’ में लीन हो गए।
श्री गुरु नानक जी ने अपने अनुयायियों को दस उपदेश दिए जो कि सदैव प्रासंगिक बने रहेंगे। उन्होंने कहा कि ईश्वर एक है और सदैव एक ही ईश्वर की उपासना की जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि जगत का कर्ता सब जगह मौजूद है और सर्वशक्तिमान ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भय नहीं रहता।
गुरु जी ने उपदेश दिया कि ईमानदारी से मेहनत करके जीवन बिताना चाहिए तथा बुरा कार्य करने के बारे में न तो सोचना चाहिए और न ही किसी को सताना चाहिए। उन्होंने सदा प्रसन्न रहने का उपदेश भी दिया और साथ ही कहा कि मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके उसमें से जरूरतमंद को भी कुछ देना चाहिए।
गुरु नानक ने अपने दस मुख्य उपदेशों में कहा है कि सभी स्त्राी और पुरुष बराबर हैं। उन्होंने कहा है कि भोजन शरीर को जिंदा रखने के लिए जरूरी है पर लोभ-लालच व संग्रहवृत्ति बुरा कर्म है।